Monday, July 20, 2009

मेरे जीवन का पहला पाठ

"हां बेटा, मैं बिलकुल ठीक हूं, " हमेशा से मजबूत दिखने वाले मेरे पापा की असहाय, कांपती, और फिर से संभलने की कोशिश करती मद्धम आवाज उस ओर थी.
ऐसा नहीं था कि पापा फोन पर कभी भावुक नहीं हुए. कितने भी कमजोर हुए हों, लेकिन उससे पहले मुझे कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ था. वैसे भी बेटियों के लिए हमेशा माय डैडी स्ट्रांगेस्ट ही होते हैं. मेरा मन टूटने को हो आया. बिना सोचे-समझे घर का रिजर्वेशन करवाया और भैया को फोन कर दिया कि मैं फलां गाड़ी से पहुंच रही हूं. दुनिया का सबसे नीरस और कठोर मेरा भाई भी इस खबर से राहत की सांस लेता दिखाई दिया, बोला, "थैंक्स यार." उम्र में मुझसे बड़े होने का बचपन से चला आ रहा उसका जोर कुछ लड़खड़ाया-सा लग रहा था.
मैं देख रही थी और मेरे पास की दुनिया बदलती जा रही थी. दुनिया में होने वाले कई - कई अचंभों, रिश्तों में आने वाली नजदीकियों, उम्र में आती जा रही परिपक्वता और सबसे ऊपर जीवन के विचित्र अनुभवों के प्रति मेरा नजरिया कैसा और कितनी तेज़ी से बदलता जा रहा था, यह देखना खुद मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था.
"बायोप्सी कहती है कि पापा को तीन महीने हुए लैंगिक कैंसर हुआ है. कहां तक फैला है, कहा नहीं जा सकता. डाँ का कहना है कि जल्द-से-जल्द ऑपरेशन जरूरी है. वरना. . .," घर पहुंचकर भाई ने बताया था. यह एकदम अलग अनुभव था, जब मैंने कैंसर को इतने नजदीक से देखा था. कई मेरे मित्रों के माता, पिता या परिवारजनों को मैंने इस परिस्थिति से घिरे और जूझते देखा था, और संबंल देने की पूरी कोशिश भी की थी, लेकिन मेरे पापा. . . ! जिंदगी भर पापा से लड़ता आया भैया एकदम रुंआसा हो गया था. मैं दो-तीन मिनिट के लिए जड़ हो गई. यादों के गहरे सागर में अपने बचपन से लेकर आजतक की सारी खुराफातें लहराने लगीं. मैंने निर्णय ले लिया था.
साहस बटोरा और बॉस को फोन घुमा दिया. "घबराओ नहीं. किसी भी नतीजे तक पहुंचने से पहले मुंबई आओ. हम एक-दो विशेषज्ञों से मिलेंगे, उसके बाद ही फैसला लेंगे." बॉस बहुत विनम्र थे, ये मैं जानती थी लेकिन मुंबई में कोई आपकी चिंता करे, यह अनुभव नया था.
के.ई.एम., मुंबई में मोनोटॉनी विभाग के डीन डॉ. मनुभाई कोठारी,, पहले व्यक्ति थे, जिनसे हम मिले. जिंदगी में कई तरह के लोगों से मिलते हैं आप, जो आपको आशावाद, जीवन के प्रति सकारात्मक नजरिया, और अच्छा-अच्छा सोचने के लिए प्रेरित करते हैं. उनसे मिलकर ही ऐसा लगने लगता है कि बस. . अब हमारी समस्या खत्म होने ही वाली है. लेकिन डाँ कोठारी ऐसे बिलकुल नहीं थे. उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा - किया.
अपनी आधी-अधूरी, कच्ची-पक्की जानकारी के आधार पर मैंने उनसे पूछा, " पापा का कैंसर कौन-सी स्टेज पर है ?" एक जमीन पर ला देने वाला जवाब उधर से आया," बेटे, जब पहलेपहल आपको ये पता चलता है कि आपको कैंसर है, तबही इसकी उम्र दस साल की हो चुकी होती है. यानि कैंसर शरीर में अपनी उपस्थिति ही दस साल बाद दर्ज कराता है. इसलिए कैसर के मामले में स्टेज के पहले, दूसरे या तीसरे होने से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता." मेरा चेहरा उतर गया. अपने पापा के लिए कुछ अच्छा कर पाने की सारी उम्मीदें बुझ-सी गईं. वे समझ गए, बोले," फिर भी ऑपरेशन करना है या नहीं, इसका निर्णय बायोप्सी रिपोर्ट देखने के बाद ही कर पाउंगा. तुम दो दिन बाद आना."
दो दिन में इंटरनेट, मैंगजीन्स और बहुत-से लोगों से मिलकर मैंने अपना विषय संबंधी ज्ञान बढ़ाया. अपने आपको हर तरह की अच्छी-बुरी खबर के लिए तैयार किया और कुछ और सवालों की लिस्ट बनाई. मेरे लिए यूं भी यह व्यक्ति एक अजूबा था, जो कैंसर के लिए किसी तरह के ऑपरेशन के पक्ष में नहीं था.
रिपोर्ट आने वाले दिन मैं इतनी घबराई हुई थी कि अगर पेड़ से पत्ता भी गिर जाता तो मैं दहल जाती. आंखें बरबस भर आती थीं और कदम आगे नहीं बढ़ना चाह रहे थे. बायोप्सी रिपोर्ट उन्होंने देखी और दिखाया डॉ. रोंडिया को. डॉ. रोंडिया, शल्य विभाग के विभागाध्यक्ष ! "हमें लगता है कि आपको अपने पापा को यहां बुला लेना चाहिए. उनका चेक-अप करके हम ज्यादा सही निर्णय ले पाएंगे." मैंने डॉ. कोठारी से पूछा, "क्या कोई ज्यादा कॉम्प्लीकेशन है ?"
"तू रास्ता पार करेगी तो कॉम्प्लीकेशन है, लिफ्ट से नीचे उतरेगी तो कॉम्प्लीकेशन है, खतरा कहां नहीं है, डियर ? फिर ये तो कैंसर है." "क्या आपरेशन से पापा का कैंसर खत्म हो सकता है ?", मैंने आशा की पतली किरण खोजने की कोशिश की.
कैंसर को लेकर जो गलतफहमियां मेरे और आम लोगों के मन में हैं, उन पर उनका पूरा दर्शन मेरे सामने था. इस जवाब के बाद मैंने तय कर लिया कि डॉ. कोठारी जो कहेंगे, वही निर्णय मैं लूंगी. सच का भी कोई व्यक्त रूप हो सकता है, यह मैंने उसी दिन जाना. उन्होंने कहा, " यह भी हो सकता है कि तुम्हारे पापा अपने कंधों पर मुझे छोड़ने जाएं लेकिन फिर भी मैं कोई झूठी दिलासा नहीं दूंगा. ऑपरेशन तभी करेंगे जब सब ठीक होने की आशा होगी. और अगर बिना किसी ऑपरेशन के उन्हें ज्यादा ठीक रखा जा सकता है तो ऑपरेशन नहीं करेंगे. कैंसर का कोई इलाज नहीं है, ऑपरेशन से कुछ नहीं होता है."
"आप ऑपरेशन के इतने खिलाफ़ क्यों हैं ? कुछ डॉक्टर कहते हैं कि कैंसर का इलाज महंगा है, कुछ कहते हैं यह जानलेवा है. कुछ बिलकुल दम ठोककर कहते हैं कि इसका इलाज संभव है, हम कैंसर को खत्म कर सकते हैं तब आप कैसे ये कहते हैं कि यह लाइलाज है ?"
" डॉक्टर ठीक कहते हैं कैसर रोग लाइलाज है. कैसर खतरनाक है. जब हम इसे बायोप्सी करके छेड़ते हैं तब यह जानलेवा बन जाता है. होता यह है कि एक तो कैंसर का इलाज हमारे पास है नहीं, इलाज के नाम पर हम इस फोड़े को चीरा लगा देते हैं, तब इसके विषाणुओं को फैलने का रास्ता मिल जाता है, इन फैले विषाणुओं से लड़ने की क्षमता हमारे पास नहीं है. अगर बिना किसी बायोप्सी के हमारा मरीज दस साल जी सकता है तो वहीं कैसर को छेड़ने के बाद उसका जीवन आधा हो सकता है. यानि यदि हम कैसर को नहीं छेड़ें तो हमारा शरीर कम तकलीफ पाता है. इसीलिए मैं कह रहा हूं कि कैंसर को रोग हम बनाते है. कैंसर खतरनाक तो है लेकिन इसे जानलेवा हम बनाते है. हां, कई ऐसे मामले हैं, जिनमें यह कहा जा सकता है कि ऑपरेशन से कैंसर का इलाज सफल रहा है, जैसे- महिलाओं में स्तन या गर्भाशय का कैसर, या पुरुषों में लिंग कैसर. लेकिन इनमें भी संभावनाएं 100 प्रतिशत नहीं हैं. यदि कैंसर अन्य अंगों में फैल चुका है तो चांसेस कम हो जाते हैं. अगर सफलताएं मिली भी हैं तो उन मामलों में जब उन अंगों को ही निकाल दिया गया. रही बात बड़े-बड़े डॉक्टरों की तो यही कहा जा सकता है कि जितना हम चिकित्सक मरीज के घरवालों को डराते हैं उतना हमारी कमाई बढ़ती है. मरीज का भय और डॉक्टर का वैभव साथ-साथ बढ़ता है. निजी अस्पताल मरीज को भर्ती करते हैं और पहली ही बार में ऑपरेशन अनिवार्य बता देते है. इधर मरीज भर्ती हुआ उधर बिल बनना चालू हो जाता है."
"फिर भी क्या संभावनाएं हैं ?"
"वो मैं पापा की जांच के बाद ही बता पाउंगा."
इसके बाद पापा का परीक्षण, डॉक्टरों का निष्कर्ष, पापा का एक ऑपरेशन, उनका कैंसर से बचकर निकल आना सब कुछ एक फिल्म की तरह चलता चला गया. पापा के कैसर प्रभावित अंग को काट दिया गया. पूरे समय डॉ. कोठारी यूं मेरे साथ थे, जैसे मेरे अभिभावक !
आज पापा को कैंसर से निजात मिल चुकी है. सिर्फ 5-6 महीने में एक बार चेक-अप, बस ! कभी-कभी ऐसी इच्छा होती है कि ईश्वर का धन्यवाद सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहिए कि उसने हमें दुर्घटनाओं से बचाया, या ऐसे उदार, नि:स्वार्थ लोगों से मिलाया, बल्कि इसलिए भी करना चाहिए कि उसी की वजह से हमें नए-नए अनुभव और ऐसी जानकारियां मिलती हैं जोकि शायद सामान्यत: हम कभी जान ही नहीं पाते. कैंसर के बारे में फैली इतनी बातों में से सही तथ्य क्या हैं, ये शायद मैं कभी नहीं जान पाती. मेरे बॉस, कुमार प्रशांत, डॉ. कोठारी, डॉ. रोंडिया आदि जेसे लोगों का समय पर मिलना, समय पर आवश्यक चिकित्सा होना और सब कुछ ठीक होते चले जाना शायद किसी चमत्कार से कम नहीं, लेकिन जेट स्पीड से भागती इस दुनिया में ऐसे लोग खुद भी तो किसी चमत्कार से कम नहीं हैं !!